संक्षेप में:
अवतार कृष्ण हंगल, जिन्हें एके हंगल के नाम से जाना जाता है, का जीवन संघर्ष, स्वतंत्रता संग्राम, और कला की अद्भुत यात्रा का प्रतीक है। बचपन से ही उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को महसूस किया और जीवनभर सामाजिक न्याय और कला के प्रति समर्पित रहे। उन्होंने पेशावर के किस्साख़्वानी बाजार में हुए कत्लेआम का अनुभव किया और बाद में कराची में दर्ज़ियों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। उनका बॉलीवुड करियर भी उतना ही प्रेरणादायक है, जिसमें उन्होंने ‘शोले’ जैसी फिल्म में ‘रहीम चाचा’ का यादगार किरदार निभाया।
प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम
अवतार कृष्ण हंगल, जो एके हंगल के नाम से जाने जाते हैं, का जन्म सियालकोट में हुआ, जहाँ उनका ननिहाली घर था। उनके मामा खद्दरधारी राष्ट्रवादी थे, और उनका परिवार कश्मीरी पंडित समुदाय से था। हंगल का बचपन धार्मिक सद्भावना के माहौल में बीता, जहाँ उन्होंने इस्लाम, सिख और हिंदू धर्म की शिक्षा प्राप्त की।
किस्साख़्वानी बाजार का कत्लेआम
23 अप्रैल 1930 को पेशावर के किस्साख़्वानी बाजार में ब्रिटिश सैनिकों द्वारा निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर की गई गोलीबारी का वे चश्मदीद गवाह बने। इस घटना ने हंगल के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया।
दर्ज़ियों की हड़ताल का नेतृत्व
1946 में कराची में दर्ज़ियों की पहली हड़ताल का नेतृत्व एके हंगल ने किया। यह हड़ताल ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संगठित विरोध का प्रतीक बनी, और हंगल की संगठनात्मक क्षमता और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का परिचायक बनी।
बॉलीवुड में अभिनय करियर
स्वतंत्रता संग्राम के बाद, एके हंगल ने बॉलीवुड में अपने अभिनय करियर की शुरुआत की। उन्होंने ‘शोले’ जैसी फिल्म में ‘रहीम चाचा’ का किरदार निभाया, जिसका डायलॉग ‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई?’ आज भी लोकप्रिय है। उनकी जीवन यात्रा संघर्ष, समर्पण और कला के प्रति उनकी अटूट आस्था का प्रतीक है।
निष्कर्ष
एके हंगल का जीवन संघर्षों और उपलब्धियों से भरा हुआ है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, और बॉलीवुड में अपनी अभिनय प्रतिभा से लाखों दिलों को जीता। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि संकल्प और समर्पण से किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल की जा सकती है।