अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रही जूनियर डॉक्टर की नौ अगस्त को कोलकाता में एक क्रूर घटना में जघन्य हत्या कर दी गई। इससे पूरे राष्ट्र का जनमानस हिल गया है। इसने एक बार पुनः निर्भया हत्याकांड की याद ताजा कर दी, लेकिन यह घटना तो उससे भी कहीं ज्यादा वीभत्स है। निर्भया की हत्या राह चलती बस में यात्रा के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा की गई थी, लेकिन हाल में घटित घटना को अस्पताल जैसे सुरक्षित स्थान पर अंजाम दिया गया है। घटनाक्रम से प्रतीत होता है कि यह पूर्व नियोजित था।
अस्पताल के अंदर कार्यरत चिकित्सक की कार्यावधि के दौरान की गई हत्या जूनियर एवं प्रशिक्षु डॉक्टरों की सुरक्षा को लेकर कई सवाल खड़े करती है। इस घटना के बाद भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के जरिये राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करने में लगी हैं और चिकित्सक के प्रति हिंसा का विषय नेपथ्य में चला गया है। विभिन्न अवसरों पर चिकित्सकों के विरुद्ध हिंसक वारदात के विरोध में चिकित्सक संगठन अपनी सुरक्षा को लेकर आवाज उठाते हैं, लेकिन ज्यादातर अवसरों पर ठंडे छींटे देकर आंदोलन को शांत कर दिया जाता है। चिकित्सकों से सेवा की तो पूर्ण अपेक्षा रखी जाती है, किंतु उनकी सुरक्षा के प्रति जवाबदेही के लिए बनाया जाने वाला कानून वर्ष 2022 से लंबित है। उल्लेखनीय है कि केंद्र द्वारा कानून बनाने के बावजूद स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय होने के कारण संपूर्ण दारोमदार राज्यों पर ही आ जाता है। कई राज्यों ने विभिन्न अवसरों पर आंदोलनरत चिकित्सकों को शांत करने के लिए कानून तो बना दिए, लेकिन वे धरातल पर नहीं उतरे। जैसे राजस्थान में कानून तो वर्ष 2008 में बन गया था, किंतु प्रभावी क्रियान्वयन डॉ. अर्चना शर्मा द्वारा दबाव में की गई आत्महत्या के उपरांत वर्ष 2022 में तय मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) के पश्चात ही हो पाया है।
कोलकाता की घटना ने चिकित्सकों विशेष तौर पर दिन-रात सेवारत सहयोगी चिकित्सकों की कार्य परिस्थितियों पर भी सवालिया निशान खड़े किए हैं। चिंतनीय है कि जिनके हाथों में जीवन बचाने का दायित्व सौंपा जा रहा है, उनके पास ठीक से उठने-बैठने, आराम करने और निवृत्त होने की उचित व्यवस्था भी नहीं रहती। चिकित्सा के व्यावसायीकरण और विशेष तौर पर कॉरपोरेट संस्कृति में ढलने से वहां कार्यरत चिकित्साकर्मी भी एक सामान्य कर्मी बन कर रह गए हैं। मरीजों के बोझ में दबे सरकारी चिकित्सा संस्थानों का तो हाल और भी चिंताजनक है। विभिन्न राज्यों द्वारा नर्सिंग होम या अस्पताल की स्थापना के मानक तय करने को क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट लागू किए गए हैं, जिनमें ड्यूटी डॉक्टर हेतु कक्ष एवं शौचालय का भी मानक रखा गया है, किंतु वह अत्यंत अल्प है, जिसमें अनेक चुनौतियां रहती हैं। हाल की घटना के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा की पहल पर पुरुष व महिला प्रशिक्षु और ड्यूटी चिकित्सकों के लिए समुचित कक्ष की व्यवस्था के लिए निर्देशित किया गया है, लेकिन क्रियान्वयन का दायित्व तो राज्य सरकारों एवं चिकित्सा संस्थान संचालकों की नीयत पर है। एक ओर भारत सरकार हर जिले में एक मेडिकल कॉलेज खोलने की महत्वाकांक्षा के साथ तीव्र गति से कार्य कर रही है, वहीं चिकित्सक इस व्यवसाय के प्रति पुनर्विचार करने लगे हैं। इन सबके मूल में निरंतर असुरक्षा का भाव सबसे प्रमुख है। पूर्व में चिकित्सक का स्वप्न होता था कि अपनी अगली पीढ़ी को भी चिकित्सक बनाना, लेकिन विगत वर्षों में इस चलन में कमी आई है। इस कमी के पीछे जहां आर्थिक कारण एक पक्ष है, वहीं नित्य प्रति घटित होने वाली घटनाएं प्रमुख रूप से दोषी हैं।
भारत की शीर्ष संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन द्वारा किए गए सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि लगभग 83 प्रतिशत चिकित्सक व्यवसाय संबंधी तनाव में जीवनयापन करते हैं। लगभग 63 प्रतिशत को हिंसा का भय सताता रहता है, तो आधे चिकित्सकों के तनाव की मुख्य वजह हिंसक वारदात होती है। क्या तनावग्रस्त चिकित्सक से बेहतर इलाज की अपेक्षा की जा सकती है? यदि चिकित्सक असुरक्षित महसूस करते रहे, तो संस्थान निर्मित होने के बावजूद सूने रह जाएंगे। चिकित्साकर्मियों के कार्य एवं आवास हेतु उपयुक्त व्यवस्था के अभाव के चलते ही चिकित्सक गांवों से विमुख हुए थे और अब शहरों से भी मोह भंग हो रहा है। इस तरह के आघात चिकित्सा व्यवसाय के साथ जुड़े गौरव को भी समाप्त कर रहे हैं। लंबी अवधि तक एवं जटिल शिक्षण के पश्चात कार्यरत चिकित्सक को उपयुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में आमजन को भी सरोकार रखना होगा। जिस प्रकार चिकित्सक उनको स्वस्थ रखने का यत्न करते हैं, उसी प्रकार तनावमुक्त कार्यस्थल व्यवस्था हेतु स्वैच्छिक संगठनों समेत सभी को मुखर होना होगा।