हाल के दिनों में केंद्र सरकार को कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर पुनर्विचार करना पड़ा है, जिसे लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं तेज हो गई हैं। आइए, एक नज़र डालते हैं उन तीन घटनाओं पर जिन्होंने इस बहस को जन्म दिया है कि क्या तीसरी बार सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार अपने फैसलों को वापस लेने के लिए मजबूर हो रही है।
वक्फ संशोधन विधेयक: जेपीसी को भेजने का फैसला
8 अगस्त 2024: नरेंद्र मोदी सरकार ने विपक्षी दलों की कड़ी आपत्तियों के बीच वक्फ संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेज दिया। विपक्ष का आरोप था कि इस विधेयक का उद्देश्य मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना है और यह असंवैधानिक है।
प्रसारण विधेयक: आलोचनाओं के बीच मसौदा वापस
13 अगस्त 2024: केंद्र सरकार ने भारी आलोचनाओं के चलते प्रसारण विधेयक का नया मसौदा वापस ले लिया। आलोचना यह थी कि सरकार इस विधेयक के माध्यम से ऑनलाइन कंटेंट पर अधिक नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रही थी।
लेटरल एंट्री योजना: विज्ञापन रद्द
20 अगस्त 2024: केंद्र सरकार ने यूपीएससी को उस विज्ञापन को रद्द करने का आदेश दिया, जिसमें लेटरल एंट्री के जरिए 24 मंत्रालयों में 45 अधिकारियों की भर्ती की घोषणा की गई थी।
विवाद का कारण: विपक्षी दलों और बीजेपी के सहयोगी दलों ने इस योजना की आलोचना करते हुए सवाल उठाया कि इसके तहत होने वाली नियुक्तियों में आरक्षण की अनदेखी क्यों की जा रही है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने इसे दलितों, ओबीसी और आदिवासियों पर हमला करार दिया था।
क्या सरकार के फैसलों में आई है बदलाव की लहर?
हालिया घटनाओं के बाद यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या मोदी सरकार अब पहले की तरह अपने फैसलों पर दृढ़ नहीं रह पा रही है?
अतीत के उदाहरण
ऐसा पहली बार नहीं है कि मोदी सरकार ने किसी निर्णय पर पुनर्विचार किया हो। इससे पहले 2021 में तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लिया गया था, जिन्हें लेकर महीनों तक किसान आंदोलन चला था। 2022 में, सरकार ने पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल को वापस लिया था, जब संसद की संयुक्त समिति ने 81 संशोधनों की सिफारिश की थी। इसी तरह, 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून पर पुनर्विचार करते हुए सरकार ने 6 विवादास्पद संशोधनों को वापस ले लिया था।
राजनीतिक विश्लेषकों का नजरिया
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद का मानना है कि हालिया घटनाएं यह दिखाती हैं कि संसद में अब सरकार का मनमानी करना संभव नहीं होगा। वे कहते हैं, “विपक्ष और सरकार के सहयोगी दल अब मजबूती से अपनी बातें रख रहे हैं। सामाजिक न्याय और संविधान को लेकर जो विमर्श उभर रहा है, उसे नज़रअंदाज़ करना सरकार के लिए मुश्किल हो गया है।”
सरकार की परिपक्वता या दबाव में फैसले?
दूसरी तरफ, राजनीतिक विशेषज्ञ डॉ. सुव्रोकमल दत्ता का मानना है कि सरकार ने इन फैसलों पर पुनर्विचार कर परिपक्वता का परिचय दिया है। उनके अनुसार, “यह संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा है कि विधेयक को जेपीसी के पास भेजा जाए, और सरकार ने अपने विवेक से यह निर्णय लिया है, न कि विपक्ष के दबाव में।”
डॉ. दत्ता का यह भी कहना है कि लेटरल एंट्री योजना में आरक्षण के मुद्दे पर विचार किया जा रहा है ताकि इसे बेहतर बनाया जा सके, और इसे विपक्ष की आलोचना के आगे झुकना नहीं कहा जा सकता।
निष्कर्ष
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि मोदी सरकार को अपने फैसलों पर पुनर्विचार करना पड़ा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार कमज़ोर हो गई है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है, जहां सरकार जनता और विपक्ष की आवाज़ को सुनकर अपने फैसलों में संशोधन करती है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार कैसे इन चुनौतियों का सामना करती है और अपनी नीतियों को कैसे लागू करती है।